क्यों ऐसा है की twitter , facebook और ऐसे ही डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की अमेरिका एवम यूरोप के लिए एक नीति है और भारत के लिए दूसरी ?

जिस देश की आजादी की लड़ाई राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लड़ी गई, उसी देश में आज राष्ट्रवाद की गाली बनाने की कोशिश हो रही है। जी हां, मैं अपने ही देश की बात कर रहा हूँ। ऐसा करने वाले बहुत जल्दी में हैं। वैसे तो दुनिया भर में जहां भी राष्ट्रवादी ताकतें मजबूत हो रही हैं, उसे एक वर्ग खतरे के रूप में देख रहा है, पर अपने देश में मामला थोड़ा अलग है। यहां इस मुद्दे पर कोई वैचारिक या तार्किक बहस नहीं हो रही है। , फैसला सुना दिया गया है, क्योंकि यहां बस, विरोध का आधार सिद्धांत नहीं व्यक्ति है। इस लड़ाई में सबसे आगे वही पार्टी खड़ी है, जिसने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। एक व्यक्ति के खिलाफ तर्कहीन घृणा के बूते अभियान चलाया जा रहा है। जैसे पारस पत्थर के स्पर्श से लोहे के भी सोना हो जाने की बात कही जाती है, वैसे ही ऐसे लोगों का मानना है कि नरेंद्र मोदी के छूने से सोना भी कोयला हो जाता है। इनकी समस्या यह है कि प्रधानमंत्री इस सबसे बेपरवाह हाथी की तरह चले जा रहे हैं। हाथी की यह विशेषता होती है कि यह सामने आदर भाव से खड़े लोगों के लिए रुकता नहीं और पीछे से भौंकने वालों को पलटकर कभी देखता नहीं, पर ऐसा लगता है कि पानी सिर के ऊपर जा रहा है। इतनी बड़ी महामारी के समय सरकार की कमियों, असफलताओं, भूलों के प्रति सवाल उठें तो समझ में आता है, पर परपीड़ा से आनंदित होने वालों को आप किसी तर्क से समझा नहीं सकते। आप तर्क दीजिए, वे भावना पर आ जाएंगे। आप भावना की बात कीजिए, वै तर्क के पीछे छिप जाएंगे। तथ्य और सत्य से इन्हें परहेज है। इस वर्ग की सारी बौद्धिक ताकत का दर्द यह है कि भइया यह टूटता क्यों नहीं है ? सात साल में या कहें कि बीस साल में पहली बार हुआ है कि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक पूंजी से कुछ खर्च हुआ है। इससे मोदी से घृणा करने वाला खेमा अति उत्साहित है। उसे रेत में पानी दिख रहा है, पर मरीचिका का पता तो पास जाने पर ही चलता है। इस स्थिति के लिए प्रधानमंत्री और उनका तंत्र ही जिम्मेदार है। आप दोस्त के लिए न रुकें, कोई बात नहीं, लेकिन दुश्मन को पहचानकर और जानकर छोड़ देने का खामियाजा तो एक दिन भुगतना ही पड़ता है। दूसरी बात यह कि भारत के नेताओं को पता नहीं कब समझ आएगा कि विदेशी मीडिया का एक बड़ा वर्ग भारत के खिलाफ था, है और रहेगा। इसमें मोदी विरोध जुड़ने से यह और खरतरनाक 'हो गया है। विदेशी मीडिया इस खेमे, लेफ्ट लिबरल मीडिया एवं कथित बुद्धिवादियों और नागर समाज के लोगों की सोच मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति लोहे के सांचे में ढल चुकी है। वे इसे फिर से बनाने के बारे में सोचने से भी डरते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा किया तो सोच में बदलाव करना पड़ सकता है। और ऐसा होना उनके अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाएगा। इन लोगों ने अब अपनी लड़ाई विदेशी डिजिटल मीडिया कंपनियों को आउटसोर्स कर दिया है। मोदी सरकार के ये नए विरोधी हैं। सरकार उनके एकतरफा विमर्श के प्रतिकार के खिलाफ एक कदम बढ़ाती है फिर दो कदम पीछे खींच लेती है। इसलिए इन संस्थानों पर सरकार की बातों का कोई असर नहीं होता।

रामधारी सिंह दिनकर ने सही लिखा है कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो । उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत और सरल हो। क्षमा बहुत अच्छा भाव है, पर सुपात्र के लिए। किसी के दमन की जरूरत नहीं है, पर समानता की मांग से संकोच क्यों? क्यों ऐसा है कि ट्विटर, फेसबुक और दूसरे एस ही प्लेटफॉम्र्स की अमेरिका एवं यूरोप के लिए एक नीति है और भारत के लिए दूसरी? सरकार की नीति ने उन्हें महाबली बना दिया है। यह उनकी ताकत नहीं, हमारी कमजोरी है। हमारी ताकत हमारी डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी और उपभोग क्षमता है। सरकार तय कर ले तो 24 घंटे में इन्हें घुटने टेकने के के लिए मजबूर कर सकती है। इसके बाद बैं जो होगा, उसकी आलोचना से घबराने की जरूरत नहीं है।

गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है- विनय न मानत जड़धि जल गए तीन दिन बीति, रा "बोले राम सकोप तब भय बिनु होत नहै, प्रीति। तो सवाल है कि आज के संदर्भ में का भय किसका ? देश के कानून का, संविधान द का और एक सौ पैंतीस करोड़ भारतवासियों के हित का, क्योंकि राहुल गांधियों, ममता बनर्जियों, शरद पवारों, उद्धव ठाकरों, हेमंत सोरेनों, तेजस्वी और अखिलेश यादवों से कुछ न हो पाएगा। चिट्ठियां लिखने वालों में से ज्यादातर जनतंत्र में सामंतशाही के प्रतीक हैं। रही बात सीताराम येचुरियों की तो वे तो पिनराई विजयन की प्राइवेट लिमिटेड पार्टी में समाहित हो चुके हैं।

भाजपा के वैचारिक विरोध में खड़े होने का माद्दा किसी में था तो कम्युनिस्ट पार्टियों में ही। आखिर 1967 से 2009 तक कांग्रेस की ओर से वैचारिक लड़ाई का मोर्चा तो वामपंथियों ने ही संभाल रखा था। इंदिरा गांधी ने 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद ही समर्थन के एवज में कांग्रेस का सारा बौद्धिक और वैचारिक काम • कम्युनिस्टों को आउटसोर्स कर दिया था। इसीलिए कम्युनिस्टों के पराभव के बाद कांग्रेस की एक टांग (वैचारिक) टूट गई। दूसरी टांग (संगठन) का क्षरण भी लगभग उसी समय से शुरू हो गया। यह अलग बात है कि प्रक्रिया पूरी हाल के वर्षों में हुई है। जब गणेश परिक्रमा ही संगठन का आधार बन गया तो गणेश (गांधी परिवार) और परिक्रमा करने वाले ही शेष हैं।

भारत में राष्ट्रवाद की चेतना कोई अंग्रेजों के समय नहीं आई। भारतीय राष्ट्रीय चेतना वैदिककाल से विद्यमान । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता के यशोगान का वर्णन है। इसी प्रकार वायुपुराण में भारत को अद्वितीय कर्मभूमि बताया गया है। भारत में राष्ट्रवाद की भावना उस समय प्रखर होती है, जब उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास होता है। आज देश ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। इसलिए जरूरत इसकी है कि राष्ट्रवाद के रास्ते की बाधाओं को दूर किया जाए। नियति ने यह दायित्व नरेंद्र मोदी को सौंपा है।

Comments

Popular posts from this blog

क्या आप ऑनलाइन पढ़ाई करते है तो जान ले ये बाते : ऑनलाइन पढ़ाए कोर्स की परीक्षा भी होगी ऑनलाइन

The Family Man Season 2